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लच्छीवाला नेचर पार्क: प्रकृति और संस्कृति को संजोने का प्रयास

करीब 20 साल पहले कॉलेज के दिनों में लच्छीवाला गया था। हरिद्वार से देहरादून जाते हुए यह जगह दून घाटी में प्रवेश की पहचान है। तब इस जगह की ख्याति मौज-मस्ती और नहाने के अड्डे के तौर पर थी। बाकी कुछ खास नहीं था। एक जलधारा में इतना पानी आ जाता था कि लोग कूद-फांद कर सकें। पास में वन विभाग का एक पुराना गेस्ट हाउस था। मुख्य हाईवे से करीब डेढ-दो किलोमीटर अंदर घने जंगल में होने की वजह से इस जगह का आर्कषण था।

पिछले हफ्ते पत्रकार मित्र राजू गुसांई ने बताया लच्छीवाला में वन विभाग ने एक संग्रहालय बनाया है जिनमें उनका भी सहयोग है। लच्छीवाला में और भी काफी कुछ संवारा-निखारा गया है। फिर तय हुआ कि लच्छीवाला पहुंचा जाए। गत मंगलवार को लच्छीवाला पहुंचा तो देखा था उस जगह का पूरा हुलिया ही बदला गया है। अब वो जगह लच्छीवाला नेचर पार्क कहलाती है।

इस नेचर पार्क की सबसे खास बात है उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने का प्रयास, जिसके लिए धरोहर नाम का संग्रहालय बनाया गया है। आमतौर पर वन विभाग जंगलों और जीव-जंतुओं पर फोकस करता है। लेकिन यह देखना दिलचस्प है कि वन विभाग ने लच्छीवाला में जो संग्रहालय बनाया है वह उत्तराखंड के इतिहास, भूगोल, खान-पान, वेशभूषा और लोक कलाओं की झांकी पेश करता है। इस संग्रहालय में उत्तराखंड पर बनी कई पुरानी और दुर्लभ फिल्मों को दिखाया गया है। इनमें टिहरी रियासत के भारतीय संघ में विलय (1949), बागेश्वर मेला (1950),  नंदा  देवी राज जात (1968), आईएमए की पासिंग आउट परेड (1957), दलाई लामा का मसूरी आगमन (1959) और पंतनगर यूनिवर्सिटी के उद्घाटन (1960) समेत कई दुर्लभ न्यूजरील हैं।

खास बात यह है कि कोविड काल की मुश्किलों के बीच निर्मित इस संग्रहालय में ऑडियोज-विजुअल और डिजिटल तकनीक का अच्छा इस्तेमाल किया गया है। संग्रहालय में रखे कृषि यंत्र, वाद्य यंत्र, पारंपरिक बीज, बर्तन, कलाकृतियों और वेशभूषाओं को निहारते हुए आप खुद उत्तराखंड के समाज और संस्कृति के करीब पहुंच जाते हैं। संग्रहालय के लिए उत्तराखंड के कोने-कोने से पुरानी चीजों को संजोने में काफी मेहनत की गई है। सरकारी सिस्टम में ऐसा काम किसी अधिकारी की व्यक्तिगत रूचि के साथ-साथ बहुत-से कलाकारों और संस्कृति को लेकर सजग लोगों की मदद से ही संभव है। हालांकि, धरोहर संग्रहालय के उत्तराखंडी वेशभूषा, वाद्य यंत्रों और पारंपरिक बर्तनों वाले हिस्सों में और ज्यादा समृद्ध बनाया जा सकता है। इसके लिए राज्य के संस्कृतिकर्मियों और समुदायों को साथ जोड़कर प्रयास किए जा सकते हैं।

संग्रहालय के अलावा लच्छीवाला नेचर पार्क में तमाम तरह के पेड़-पौधे हैं। काफी बड़ा बागीचा है। बच्चों के खेलने के लिए बहुत से झूले और एडवेंचर का इंतजाम है। जलधाराओं का इस्तेमाल कर जलाशय बनाये गये हैं, जहां बोटिंग कर सकते हैं। एक म्यूजिकल फाउंटेन है जिसे देखना बेहद दिलचस्प है। फूट कोर्ट भी बन गया है। नहाने के लिए पुरानी जगह से इतर अलग जलधारा है। कुल मिलाकर लच्छीवाला का कायाकल्प हो गया है। इसलिए पर्यटकों की आवाजाही बढ़ गई है।

गत 17 अगस्त से अब तक लच्छीवाला नेचर पार्क में एक लाख से ज्यादा पर्यटक आ चुके हैं और इनसे वन विभाग को 75 लाख रुपये से ज्यादा की आमदनी हुई है। इनमें से 70 हजार से ज्यादा लोगों ने टिकट खरीदकर संग्रहालय देखा। सबसे बड़ी बात यह कि देहरादून के आसपास एक अच्छी जगह बनी है जहां पहुंचकर आप प्रकृति और उत्तराखंड की संस्कृति के करीब पहुंच सकते हैं।

 

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